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कविता

'हड़परौली'

श्रीप्रकाश शुक्ल


वहाँ जामुन का एक पेड़ था
बहुत बूढ़ा पेड़
पूर्णिमा की चाँदनी में सबसे हरा और भरा

जब जब पड़ता था सूखा
झुराने लगती थी बिरई
कुहुकने लगती थी चिरई
इतिहास साक्षी है
उस गाँव की सभी औंरते यहाँ इकठ्ठा हो लेंती
और बहुत चुपके से हल चलाती

निर्वासित इंद्रों को खुश करने का यही एक तरीका था
जिस पर किसी ने कोई सवाल नहीं किया
राजा नहुष ने भी नहीं

आर्यों की सबसे उन्नत अवस्था में भी
नहीं मिलता कोई लिखित प्रमाण
कभी किसी औरत के हल चलाने का

भारतीय संस्कृति की यह एक बड़ी घटना थी
जिसे बाजार की किसी बही में
कभी दर्ज ही नहीं किया गया
इतिहास ने तो समझा ही नहीं

यूँ हमारी संस्कृति में पहली बार जुतीं औरतें
पहली बार पकड़ी मुठिया
पहली बार उठाया हल और फावड़ा
और तो और पहली बार बहुत चुपके से निकलीं

मध्य रात्रि में!

यह किसी सूखे का सार्वजनिक समारोह था
जहाँ हल ने बहुत चुपके से प्रवेश किया उनके सपनों में
जिसमे आर्द्रा की चमक थी तो मघा के झकोरे
सावन के हिंडोले थे तो भादों की किलोलें
कान की जरई थी तो हाथ की राखी

कुल मिलाकर वह सब था
जो जरूरी था अपने अपने इंद्र को

कई वर्ष बाद इस वर्ष जब फिर पड़ा सूखा
उठने लगा चारों और हाहाकार

'इंद्र इंद्र पानी दे, प्यासे मर गए पानी दे'
तो इंद्र को खुश करने के सारे विकल्प तलाशे गए

सबसे पहले फेंका गया शिवलिंग को पानी में
शिव ने डूबने से मना कर दिया

फिर गुहार लगाई गई तुलसी के राम की
राम कब के अयोध्या छोड़ चुके थे

फिर दिया गया चींटियों को पिसान
एक भी चींटी ने नहीं उठाया कोई कण
छिड़ा था गोधरा में गो कि जो रण ?

किया गया और भी बहुत कुछ
बच्चों को भेजा गया दरवाजे दरवाजे
चउरी माता को लगाया गया उबटन
और बड़ी धूमधाम से निकाली गई मेढकों की बारात

किया सभी ने बहुत बहुत टर्र
इंद्र का फिर भी
किया नहीं गला खर्र।

ठीक ऐसी जगह पर
बहुत याद आईं औरतें
मूकता और कूकता की ये औरतें
सूखे में भी रक्त भर की गर्मी बचाने वाली औरतें

और उस सभ्य समाज में पुनः यह बात उठी
कि औरतों को हल उठा ही लेना चाहिए
उन्हें हड़परौली कर ही लेना चाहिए
लेकिन मुश्किल यही थी इस बार
कि औरतों ने हल उठाने से मना कर दिया।
    ('बोली बात' काव्य-संग्रह से)

 


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